शनिवार, 22 जनवरी 2011

मुश्किल है खुद को समझाना

दुनिया को समझा लो लेकिन मुश्किल है खुद को समझाना
आसानी में कहाँ सफलता बहुत कठिन है बढ़ते जाना
अपनी विकसित कर्म रह पर गर अंकुश कर ले रही
ऐसे सुंदर मनोभाव से आसन है मंजिल पा जाना
राजनीती का मंत्र सफल है वो ही साधक सफल हुआ है
अपने शतरंजी प्यादों को जिसने सीखा मान दिलाना
कौन है अपना कौन पराया कैसा है ये आना जाना
हमको भी तो सीखना होगा इस दुनिया का ताना baana

बुधवार, 28 जुलाई 2010

नै कलम गर चल निकली तो...

नयी कलम गर चल निकली तो, फिर वो बहुत कमाल करेगी,
कई पुराणी कलमों से बढ़, नित नित नए धमाल करेगी,
जो भी अपने दिल भये, कर लो दुनियादारी है,
दुनिया की क्या परवाह करना, ये तो यूँही बवाल करेगी,
नयी कलम गर चल निकली तो,..................................
तन या कपड़ों का काला तो, जैसे तैसे धुल जायेगा,
इज्जत पर गर दाग लगा तो, फिर क्या वहां गुलाल करेगी,
नयी कलम गर चल निकली तो,....................................
अभी हमारे कर्मों से तो, देश और हम शर्मिंदा हैं,
हम गर्वित है पुरखों पर, पर pidi नयी मलाल करेगी,

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

कौन सुनेगा गीत मेरे...

कौन सुनेगा गीत मेरे, मैं तो पागल आवारा हूँ,
इस दुनिया में कौन है मेरा, मैं तो बेघर बंजारा हूँ।
सबकी आँखों में नफरत के बिम्ब देखता आया हूँ,
लेकिन फिर भी आँख है कोई, जिसका मैं सुंदर तारा हूँ।
कौन सुनेगा गीत मेरे, ......................................
जीवन के आँगन बेशक दुःख का आना जाना हो,
पर मैं इनसे भी बढकर, खुद ही एक दुखियारा हूँ।
कौन सुनेगा गीत मेरे, ......................................
सागर तट का जीवट हूँ मैं, मछली कुछ भी करके देखे,
कमजोर नहीं जिंदादिल हूँ, आखिर मैं भी मछुआरा हूँ।
कौन सुनेगा गीत मेरे, ......................................
लक्ष्य मान बैठा जो बन्दा, आफताब सा रोशन होना,
उसको यह तो भूलना होगा, एक दीप सा उजियारा हूँ।
कौन सुनेगा गीत मेरे, मैं तो पागल आवारा हूँ,
इस दुनिया में कौन है मेरा, मैं तो बेघर बंजारा हूँ

कल्पना में तुम नहीं तो

कल्पना में तुम नहीं तों, क्या लिखूं श्रृंगार पर,
नफरतों में घिर गया हूँ, क्या लिखूं में प्यार पर.
एक पत्थर में हृदय को ढूँढना भी, भूल ही है,
अब जो पत्थर भी मिलेंगे, मन लेंगे फूल ही हैं,
पत्थरों के फूल हो तो, क्या लिखूं में खार पर.
कल्पना में तुम नहीं तो, क्या लिखूं श्रृंगार पर,
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हम हमारे मान की परवाह ही करते रहे,
वो हमारे मान को अभिमान से दलते रहे,
तोड़ डाले स्वप्न सारे, क्या लिखूं इकरार पर,
कल्पना में तुम नहीं तो, क्या लिखूं श्रृंगार पर,
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जब उम्मीदें ही हो तो, क्या भरोसा हम करें,
हो चुकी कोढ़ तन को, कब तलक मलहम करें,
एक झूठी आस लेकर, क्या लिखूं घर बार पर,
कल्पना में तुम नहीं तो, क्या लिखूं श्रृंगार पर,
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